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विश्व रंगमंच दिवस पर मोहन राकेश के नाटक ‘आधे-अधूरे’ का अभ्यास मंचन बुंदेलखंड नाट्य कला केंद्र सभागार में

झांसी। विश्व रंगमंच दिवस पर मोहन राकेश के नाटक ‘आधे-अधूरे’ की तैयारी का अभ्यास मंच किया गया।

नाटक विवरण :

निर्देशन डा कृपांशु द्विवेदी

मंच पर :-
काले सूट वाला आदमी – विशाल श्रीवास्तव
सावित्री – शिखा सिंह चौहान
महेंद्रनाथ – दिनेश सिंह
सिंघानिया – अनूप कुशवाहा
जगमोहन – उमेश पाल
जुनेजा – कुशल श्रीवास्तव/उमेश
अशोक – साहिल
बिनिता – निशा

मंच परे-

संगीत संयोजन- सनोज भारद्वाज
रूपांकन – शिखा,निशा
भेष-भूषा – निशा,नित्या,साहिल
मंच निर्माण – अनूप,साहिल,दिनेश
ब्रोशर – एकांश उपाध्याय
पोस्टर डा. शीतल शर्मा (ललित कला अकादमी,आगरा)
सहयोग – बुंदेलखंड नाट्य कला केंद्र समिति सदस्य

लेखक-: प्रमुख समकालीन हिंदी नाटक एवं आधुनिक हिंदी कहानी आंदोल के प्रमुख लेखक मोहन राकेश जी ने अपने नाटकों की मूलकथन,कलाबोध,बिम्बों, और ऐतिहासिकता के माध्यम से प्राचीन कला की प्रशंसा की बजाय वर्तमान समस्याओं को उठाने का,उन्होंने उजागर करने का प्रयत्न किया है ! और इस बात की सभी विद्वान,निर्देशकों,अभिनेताओं और रंग समीक्षकों ने प्रशंसा की है !

निर्देशकीय -:
आधे अधूरे का आलेख स्त्री-पुरुष के मध्य प्रेम और संघर्ष पर आधारित है! अर्थात पुरानी चली आ रही सामाजिक एवं पारिवारिक परंपराओं, रूढ़ियों के विघटन एवं टूटने की कहानी है! यह प्रयास अधिक व्यावहारिक, मितव्यी,सादगी पूर्ण प्रस्तुति की कोशिश की जा रही है ! शैली की दृष्टि से यह नाटक यथार्थवादी नाटक है नाटक में आज के ज़माने की मध्यमवर्गीय परिवार की समस्याएं है ! जो संभवतः पसंद की जाएगी ! नाटक की भाषा आम बोलचाल की होने से हर प्रकार का दर्शक इस नाटक का आनंद उठा सकता है!
एक अन्य स्तर पर यह नाट्य रचना मानवीय संतोष के अधूरेपन का रेखांकन है ! जो ज़िन्दगी से बहुत कुछ चाहते हैं, उनकी तृप्ति अधूरी ही रहती है !

सेट डिज़ाइन-
आधे अधूरे का कार्य-स्थल मकान का बैठने का कमरा है, जिसमें सोफे़,कुर्सियां,मेज,अलमारी, किताबें,फाइलें आदि हैं !
यह कमरा एक समय साफ़- सुथरा रहा होगा, पर सालों की आर्थिक कठिनाई के कारण अब सब पर धूल की तह जम गई है ! काकरी पर चटख़न है ! दीवारें मटमैली हो गई हैं! परिवार का हर सदस्य एक- दूसरे से कटा हुआ है !
घर की हवा तक में उसे स्थायी तल्खी की गंध है, जो पांचों व्यक्तियों के मन में भरी हुई है ! ऊब,घुटन,आक्रोश,विद्रूप…. दम घोंटने वाली मनहूसियत, जो मरघट में होती है ! यह नाट्य कलात्मक नाट्य अनुभूति देने में समर्थ है वह जिंदगी की महत्वपूर्ण उत्तल पुथल पर उंगली रखता है !

प्रकाश व्यवस्था :-
प्रकाश-व्यवस्था में किसी भी तरह की लटके नहीं है! नाटक के लिए उपयुक्त सादी आलोक-पद्धति है ! प्रारंभ में कुछेक स्पाॅट घर की विभिन्न चीजों को आलोकित करते थे, फिर हाउस-लाइट में घुल मिल जाते थे! इसी प्रकार दूसरी अंक के शुरू में दो स्पाॅट लड़के और ‘बड़ी लड़की’ को आलोकित करती थे, फिर एक प्रकार व्यवस्था में सम्मिश्रित हो जाते
है!

वेशभूषा:-
वेशभूषा की दृष्टि से पहले काला सूट,फिर केवल कुर्ता, फिर बंद गले का कोट व टोपी,हाइनेक की कमीज़,और फिर कोट, बिन्नी,किन्नी और अशोक की पोशाकों में कोई परिवर्तन नहीं था ! केवल सावित्री दूसरी अंक के लिए साड़ी बदलती है क्योंकि यह स्थिति की मांग है !

रुप सज्जा:- प्रस्तुति की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है मेकअप का न होना नायिका केवल वही मेकअप किए हुए हैं जो जैसी स्त्री वास्तविक जीवन में करती है ! इसके अलावा किसी भी कलाकार ने पाउडर इत्यादि भी नहीं छुआ है !

संगीत:-
नाटक के शुरू,मध्य और अंत में पार्श्व संगीत का व्यवहार किया गया है ! जिसकी ध्वनि तरंगे खालीपन, भय को संप्रेषित करती है!

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1 comment

G S Renjen April 14, 2023 at 9:27 pm

मोहन राकेश जी ने अपने नाटकों की मूलकथन,कलाबोध,बिम्बों, और ऐतिहासिकता के माध्यम से प्राचीन कला की प्रशंसा की बजाय वर्तमान समस्याओं को उठाने का,उन्होंने उजागर करने का प्रयत्न किया है

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